अलवर का नीलकंठ महादेव मंदिर,,,महादेव के प्राचीन मंदिरो में से एक है इसकी स्थापना पांडवो ने की थी तथा महादेव से किया था एक वादा उसी की निशानी है यह मंदिर
राजस्थान के अलवर जिले को मत्स्य प्रदेश के पौराणिक इतिहास से जोड़ने वाला प्राचीन मंदिर है नीलकंठ महादेव मंदिर।

कहते हैं महाभारत काल में पांडवों ने काशी से लाए गए शिवलिंग की यहां स्थापना की। तब यहां पारा नगर नामक शहर हुआ करता था। इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल के बाद सन् 1010 में राजोरगढ़ के राजा अजयपाल ने शिवालय को भव्य मंदिर का रूप दिया। लेकिन समय बीतता गया और उसकी देखभाल ना होने के कारण आज मंदिर का स्वरूप कुछ और ही ! यहां करीब 1000 मंदिर बनवाए गए। जानें इस मंदिर के बारे में…सबूतों के साथ
मंदिर से जुड़े तथ्यों और प्राचीनता के सबुत
इनके अवशेष पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई में मिले हैं। पारा नगर (नीलकंठ) क्षेत्र में राजा रानी के महल, लछुआ की देवरियां और जमीन के भीतर तक 360 सीढ़ियों वाला कुंड महल, बटुक की देवरी, हनुमान देवरी, रखना की देवरी, कोटन की देवरियां, बाघ की देवरी, मुडतोड की देवरी, धोला देव, आशावरी की देवरी, ठाकुर जी की देवरी मंदिर श्रेष्ठ कला शिल्प के नमूनों में शुमार हैं।
मंदिर का स्वरुप
मंदिर में विराजमन शिवलिंग पूर्णरूप से नीलम पत्थर से निर्मित है। जिनकी ऊंचाई साढ़े चार फुट है।

मंदिर के गर्भ गृह सहित मंदिर का गुमबद भी पूर्ण रूप से पत्थरो से बना हुआ है। जिसमे चुना का उपयोग कही भी नहीं किया गया है

मंदिर के गर्भ गृह और गुम्बदों पर दुर्लभ देवी देवताओ की मूर्तियां उकेरी गई है। जो की केवल इसी मंदिर में देखने को मिलती है।

इस मंदिर में प्रथम पूज्य देव श्री गणेश जी की नृत्य करते हुए अवस्था में प्रतिमा है जो राजस्थान में किसी भी मंदिर में नहीं मिलती है ! देवी देवताओं की अद्भुत प्रतिमाओं पर किया गया कला कार्य हमारे देश की अद्भुत कला संस्कृति को दर्शाता है कि हमारे पूर्वज कला के क्षेत्र में भी कितने आगे थे !

पांडवों के साथ काशी से आए महादेव
-पौराणिक कथा है कि पांडव ने काशी जाकर भोलेनाथ का आग्रह साथ चलने को किया। तो भोले ने शर्त रखी कि चल तो चलूंगा, लेकिन जहां सुबह की जाग हो जाएगी वहीं मेरी स्थापना करनी होगी।

वचन देकर पांडव महादेव के साथ चल पड़े। वे बैराठ (विराट नगर) में बाण गंगा नदी के तट पर शिवलिंग स्थापित करना चाहते थे, लेकिन मार्ग में पड़े पारा नगर जाग हो गई।
– वचन के मुताबिक पांडवों ने पारा नगर (नीलकंठ) में शिवलिंग स्थापना कर दी।

भोले के अभिषेक के लिए एक ही रात बावड़ी भी बनाई। पांडवों ने मंदिर के गर्भगृह में अखंड ज्योति जला उपासना की जो आज भी जल रही है।
यही मंदिर, जहां गौरी-गजनी कुछ नहीं बिगाड़ सके
करीब एक हजार मंदिरों की इस पावन धरा पर महमूद गज नवी और गौरी जैसे आक्रांताओं ने जमकर विध्वंस किया। मंदिर, देव प्रतिमाएं खंडित कर दीं। लेकिन जब उनके सैनिक नीलकंठ शिवलिंग की ओर बढ़े तलवार के वार से प्रतिमाओं को खंडित करना चाहा तो मंदिर के गर्भग्रह से भयंकर ज्वाला निकली। इससे घबराकर गौरी के सैनिक पीछे हट गए। तीन दिन तक वे यहां आग शांत होने की प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन अग्नि धधकती रही। सैनिक भाग खड़े हुए और बादशाह ने आकर शीश नमन किया। गलती स्वीकार कर वापस लौट गया। इसके कारण यह इकलौता मंदिर है, जिसका इस्लामी आक्रांता कोई नुकसान नहीं कर सके।

मंदिर की सारसंभाल
नीलकंठ निवासी बताते हैं कि पांडवों के समय से मंदिर के गर्भगृह में अखंड ज्योति जल रही है। मंदिर के समीप बावडी भी है। यहां नाथ संप्रदाय के 40 परिवार रहते हैं, जो मंदिर में सेवा पूजा करते हैं। प्रत्येक परिवार का पूजा अर्चना समय निर्धारित है। यह मंदिर सन् 1970 से पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं। विभाग का 1-4 का स्टाफ यहां पदस्थापित है। ऐतिहासिक महत्व होने से पुलिस स्टाफ सुरक्षा में तैनात रहता है।
भैरू और आसावरी माता का मंदिर भी है

भोलेनाथ के साथ ही माता आसावरी माता का अंगरक्षक भैरू भी थे। जाग होने पर जहां माता ठहरी वहां उनका मंदिर बना है।

जबकि अंगरक्षक भैरू कम सुनता था और जाग की आवाज नहीं सुन सका और आगे बढ़ गया। भैरू के साथ चल रहे पुजारी ने पीछे देखा, तो माता नहीं दिखी। उसने भैरू से कहा माताजी पीछे रह गई हैं, वे नाराज हो जाएगी। तो क्रोध में आकर भैरू ने पुजारी का भक्षण कर लिया और कहा कि आज से यहां मेरी पीठ की पूजा होगी। तब से यहां भैरू की पीठ की ही पूजा अर्चना की जाती है।
मंदिर के उत्सव और त्यौहार
वैसे तो आप कभी भी मंदिर के दर्शन करने के लिए आ सकते हैं सुबह से लेकर शाम तक मंदिर खुला होता है और मंदिर को देखने की कोई फीस नहीं ली जाती है ! फिर भी नीलकंठ महादेव मंदिर पर शिवरात्रि पर्व पर विशेष पूजा अर्चना का महत्व होने के कारण यहाँ महाशिवरात्रि पर दिन भर भक्तो का रैला उमड़ता रहता है

तथा भगवान शिव से मनवांछित फल प्राप्ति के लिए भक्तजन अपनी – अपनी आस्था और सामर्थ्य के अनुसार धार्मिक अनुष्ठान एवं रुद्राभिषेक करते है।


भोलेनाथ भी उनकी साधना और इच्छाशक्ति के अनुसार फल प्रदान करते है। दिन में यहाँ पर पूजा, अर्चना, अनुष्ठान, प्रसादी वितरण कार्यक्रम का दौर चलता रहता है और रात्रि के समय में मंदिर के परिसर में भजन मंडलियों द्वारा सम्पूर्ण रात्रि भोलेनाथ की महिमा का गुणगान भजन संध्या के माध्यम से होता है।


जिसमे बड़ी संख्या में भक्तजन मौजूद रहते है।
इसके साथ ही यहाँ पर श्रावण मास में और भादों मास में भी मेला लगता है। जिसमे राजस्थान के प्रत्येक जिले से एवं दिल्ली, हरयाणा, पंजाब, गुड़गांव, मुंबई, सहित भारत देश के कोने कोने से श्रद्धालु आकर भोले नाथ की पूजा अर्चना कर मनवांछित फल प्राप्त करते है।



श्रद्धालुओं का मानना है कि महाशिवरात्रि श्रावण एवं भादों मास में मंदिर में विराजमान नीलकंठ महादेव शिवलिंग का प्राकृतिक रूप दिन में तीन प्रकार के रंग का दिखाई देता है
कैसे पहुंचा जाये
यह मंदिर टहला से 10 किलोमीटर की दूरी पर सरिस्का अभ्यारण क्षेत्रमें स्थित है जो किनिकटतम हवाई अड्डा जयपुर में मंदिर स्थल से लगभग 116 किमी दूर है। अपने निजी वाहनों के द्वारा ही अलवर से आप इस मंदिर तक पहुंच सकते हैं मंदिर तक पहुंचने के लिए सीधा साधन उपलब्ध नहीं है क्योंकि रोड की सुविधा अच्छी नहीं है
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